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Saturday 14 January 2017

अभिलाषा

आशा की डाली हुई पल्लवित औ
प्रकाशित हुई रवि किरण हर कली में,
जगी भावनायें किसी प्रिय वरण की
सजाये सुमन उर की प्रेमांजली में,
अरेǃ तुम अभी आ गये क्रूर पतझड़
सुरभि उड़ गई, जा मिली रज तली में।

हुआ दग्ध अन्तर, उड़ा जल गगन में
बना वाष्प संग्रह, उठा भाव मन में,
कि हो इन्द्रधनु सप्तरंगी मिलन का
रहे सर्वदा रूप भासित नयन मेंं,
बरस ही गया टूट कर आसमां से
सजल कल्पना का भवन ध्वस्त क्षण में।

छ्पिाये हुए उर में पावक विरह का
चला अभ्र धारण किये मन में आशा,
ये वाहक पवन भी तो है किंतु निष्ठुर
उड़ाये निरूद्देश्य होती निराशा,
ह्रदय चीरकर के किया जग उजाला
नहीं बुझ सकी किन्तु दर्शन पिपासा।

उषा के नयन से बरसते तुहिन कण
सजा सुप्त सरसिज, हुआ गात कम्पित,
पवन भी चला मंदरव में सुगन्धित
जगी चेतना तब हुए पत्र पुलकित,
किया दृग अनावृत न देखा किसी को
मिला अश्रुकण भी न, है पुष्प कुसुमित।

छ्पिा शुभ्र दिनकर, घना श्याम अम्बर,
उठा कंप  मन में, उठी एक ईहा,
बुझे प्यास मन की, मिले एक जीवन
सुखद अनुभवों की करूं फिर समीहा,
गिरा सीप में बन गया बिन्दु मोती
तृषित रह गया चिरतृषित ही पपीहा।

ठूंठ

त्याग दिये पत्ते क्यों, हे तरूǃ
हारे बाजी जीवन की।
क्यों उजाड़ते हो धरती को,
हरते शोभा उपवन की।
हुए अचानक क्यों तुम निष्ठुर,
बहुत सुना तेरा गुणगान,
पर उपकारी, बहु गुणकारी,
तरू धरती का पुत्र महान।
सोच लिया क्या करूं पलायन,
देख विकट इस जग की मार,
छाेड़ चले ‘तरू बन्धु‘, ‘धरा मां‘,
‘पिता व्योम‘ का अनुपम प्यार।
धैर्य, अचलता और उदारता,
बिखर गये तेेरे आदर्श।
पश्चाताप नहीं थोड़ा भी,
कर तो लेते जरा विमर्श।
शायद, असली रूप यही है,
पार्थǃ देख लो ‘माधव‘ का,
ढोंग नहीं आता है, जिसको
‘ठूंठ‘ नाम उस मानव का।

यथार्थ

एक दिन
मैंने बनाई,
एक खूबसूरत पेंटिंग
मन के विस्तीर्ण कैनवस पर।
जिसमें खिला था–
सुनहरा सवेरा,
महाकवि माघ के प्रभात को लज्जित करता हुआ।
झील से मिलते धरती और आकाश,
बुझती युगों–युगों की प्यास।
गिरि–शिखरों के कोने से झांकता सूरज।
फूटती किरणें–
मानों मेरी आशायें फूट रही हों,
कालिदास की उपमा भी शरमा गई।
कलरव करते पक्षी,
खिलते फूल,
सब कुछ तो था।


अचानक
एक हवा का झोंका आया,
उड़ा ले गया सभी रंग।
रह गयी धुंधली रेखाएं,
कोरा कागजǃ
मैं स्तब्ध रह गया।
मेरी कल्पना
इतनी बदरंगǃ
या कहीं यही सच तो नहीं मेरे अन्दर काǃ
कहीं यही असली रंग तो नहीं बाहरी दुनिया का,
जिसमें मैं हूूं।
निर्णय नहीं कर सका–
क्या है यथार्थ।

निवेदन

हे प्रियतमǃ तुम आये
मन के मोती खनखनाये।
कौन कहता हैǃ
शंकर ने कामदेव को जला दिया,
तुम सशरीर मेरे पास हो।


मेरी जीवनरूपी आकांक्षा की चरम परिणति,
जन्मों की संचित अभिलाषा का मूर्त रूप,
मेरे आंगन के फूलों के माली।
इस तुच्छ जीवन के,
इस तुच्छ क्षण को,
तुम्हारी स्मृतियों ने जीवन्त कर दिया।
मुझे लगा तुम पास हो,
आहǃ मैं धन्य हो गई।


हे प्रियतमǃ तुम्हारी स्मृति धन्य है,
तुम कैसे होगेǃ
शायद मेरी याद तुम्हें न आये,
मैं सह लूंगी–तुम मेरे पास न आओ।
पर इक अभिलाषा है–
मेरा वो क्षण मुझे दे देना,
‘मेरी अन्तिम सांस तुम्हारी हो जाये।‘

भविष्य

मैं सपने बुनता हूं
स्वर्णिम भविष्य के।
टूटते हैं रोज फिर भी
मेरी जिजीविषा अनन्त है।
पहले दूसरों से सुनता था
अब खुद भी कहता हूं–
‘‘कुछ करके दिखाउंगा,
कुछ बन के दिखाउंगा।‘‘
उजले कागजों को स्याह कर डालता हूं,
बाप की कमाई से सपनों का पेट पालता हूं,
क्योंकि मैं एक शिक्षित बेरोजगार हूं,
हर लक्ष्‍य के लिए संघर्ष करने को तैयार हूं।


इस बीच भावनाएं घेरती हैं–
एक सुन्दर सी होगी
मेरी जीवन संगिनी।
सारी दुनिया से अलग
सारे सुख आसमां के
दूंगा मैं उसको।
वो मुझे देगी–‘बाहों का हार‘
मैं उसे दूंगा–‘प्राणों का प्यार‘


बात आगे बढ़ती है–
हम दोनों का प्यार
होगा साकार
एक नन्हें से चांद के रूप में।
रूप में वो होगा
कृष्ण का अवतार
बल में वो जायेगा
हनुमान से भी पार
ज्ञान में मिलेगा
उसे सरस्वती का प्यार
चांद की गति से
बढ़ेगा वो आगे
होगा वो मुझसे भी दो कदम आगे।


एक अनचाहा प्रश्न उठता है–
कौन सी सीमा
बनायी है मैंने
तोड़ेगा जिसको वह।
कौन सी है सीमा
दो कदम पीछे
रह गया मैं जिससे।
सोचता हूं–
‘‘मैं लाखों में एक नहीं‘‘
जैसा कि सोचा था
मेरे जन्मदाता ने
मैं लाखों की तरह एक था।
शायद वह लाखों में एक हो जाये
या फिर मेरी तरह, बुनता रह जाये
‘‘सपने– स्वर्णिम भविष्य के‘‘

शान्ति की खोज में

मैं शोर से आक्रान्त हूं
इसलिए मैं भागता हूं, हर जगह से
पर मैं पलायनवादी नहीं हूं
इसलिए मैं भटकता हूं
शान्ति की खोज में।


मैंने सुनी–
फूलों से भरी, लताओं से घिरी,
अकेली डगर की कराहǃ
पता नहीं कब तक चलना है;
कहां है मेरी सीमा।
मैंने पहचाना
वो गहरा दर्द
जो छ्पिा था
कल–कल करती नदी के गीत में।
मैंने देखी–
वो नीरसता,
जो छ्पिा रखी थी आकाश ने
नीरवता के आवरण में।
हवा की सरसराहट ने सुनायी,
अपनी शाश्वत कहानी
मार्ग के लिए संघर्ष की।
मैंने सुना,
तरूओं का शोर–
हमें आश्रय दो, आज तक हमने सबको आश्रय दिया,
हमें आश्रय दो।


मैं अशान्त हो उठा।
पर मैं सतयुगी ऋषि नहीं,
जो हिमालय की कन्दरा में धूनी रमा लेता,
मैं कलि का वंशज हूं।
मैं कमरे में छुप गया।
पर मैंने अनुभव किया
एक भयानक शोर
जो आ रहा था मेरे अन्दर से
मैं फिर भागा और भागता गया
दुनिया से दूर
ऐसी जगह की खोज में
जहां शान्ति हो।