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Saturday 14 January 2017

यथार्थ

एक दिन
मैंने बनाई,
एक खूबसूरत पेंटिंग
मन के विस्तीर्ण कैनवस पर।
जिसमें खिला था–
सुनहरा सवेरा,
महाकवि माघ के प्रभात को लज्जित करता हुआ।
झील से मिलते धरती और आकाश,
बुझती युगों–युगों की प्यास।
गिरि–शिखरों के कोने से झांकता सूरज।
फूटती किरणें–
मानों मेरी आशायें फूट रही हों,
कालिदास की उपमा भी शरमा गई।
कलरव करते पक्षी,
खिलते फूल,
सब कुछ तो था।


अचानक
एक हवा का झोंका आया,
उड़ा ले गया सभी रंग।
रह गयी धुंधली रेखाएं,
कोरा कागजǃ
मैं स्तब्ध रह गया।
मेरी कल्पना
इतनी बदरंगǃ
या कहीं यही सच तो नहीं मेरे अन्दर काǃ
कहीं यही असली रंग तो नहीं बाहरी दुनिया का,
जिसमें मैं हूूं।
निर्णय नहीं कर सका–
क्या है यथार्थ।

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